Wednesday, March 19, 2014

* सृस्टि की रचना *

   !   * ब्रह्म सूत्र वायु *

                   साष्त्रानुसार सृस्टि के रचिता श्री ब्रह्मा जी को माना गया है । देवआदिदेव, परब्रह्मप्रमेष्वर, परमपिता प्रमात्मा, सृस्टि को रचने से पहले सबसे पहले स्वयं, अपने अनुरूप अपने में से दिव्य गुणों से भरपूर एक फोरमेटड गौड की रचना करते हैं जिसे अधिदेव " नारायण " भी कहते है यही अधिदेव, त्रिगुणधारी, तीनो गुणो से भरपूर" ब्रह्मा, विष्णु, महेष " त्रिदेव की रचना करते हैं और फिर ब्रह्मा जी सृस्टि की रचना करते हैं ।त्रेता युग में जब प्रसौत्तम पुरुष के रूप में श्री राम जी ने अवतार धारण किया उस काल में राजा जनक जी जो कि एक ब्रह्मज्ञानी राजा थे एक राजयषश्वी यज्ञ का आयोजन किया और उसमें एक प्रशन्न रखा गया था, " ब्रह्मसूत्र क्या है " जिसके उत्तर में ऋषि अष्टावक्र जी ने सही उत्तर दिया:-
                                 * ब्रह्म सूत्र वायु है *
                फिर भी सृस्टि का रहस्य आज तक नही सुलझ पाया । क्योंकि खाली वायु से सृस्टि की रचना नहीं हुई,  वायु तो केवल एक तत्व है जो इसकी रचना का एक मात्र हिस्सा है जिसके जानने से हम एक गुण के प्रभाव को ही जान सकते हैं ।

   !!  * परम सूत्र आत्मा *

                 सृस्टि की रचना में तत्व का बहुत महत्व है समस्त अध्यात्म जगत का आधार तत्व ही है जिसको आत्म तत्व माना गया है इस तत्व का स्वामित्व श्री विष्णु जी के पास ही है त्रिमूर्ति भगवान का यह एक दिव्य गुण है भगवान विष्णु इस के माध्यम से सृस्टि का पालन करते हैं । दु्ापर युग में श्री कृष्णा विष्णु के अवतार हुए जो परम तत्व के अवतार थे। श्री कृष्णा ने अपने परम मित्र धनुरधारी अर्जुन को दु्ापर मे विराट रूप दिखाया जिसमें जिवात्माओं को अपने सृष्टि रूपी शरीर में शरीर के हर दू्ार से आते जाते दर्शाया गया है ।अब भी वायु तत्व और आत्म तत्व दो के योग से भी सृस्टि का रहस्य यूं का त्युं ही बना हुआ है।

    !!!   * शिव सूत्र H2-O - जल *
         
                   सृ्स्टि की उत्पत्ति में जल का विशेष महत्व क्योंकि प्रकृति का सबसे महत्वशील तत्व जल है। जल से ही वास्त्व में देखा जाए सृस्टि की उत्पत्ति हुइ है त्रिमूर्ति भगवान के तीसरे गुण श्रंगहार का स्वामित्व श्री महेष जी (भगवान श्री शिवा) के पास हैं और जल के माध्यम से ही जब महाप्रलया होती है केवल जल ही बचता है और इतना ही नहीं जल भी अग्नि यानी तेज दु्ारा वाष्प बन कर हवा में उड जाता है ।जिससे त्रीमूर्ती भगवान के तीसरे गुण की पुस्टी हो जाती है लेकिन अकेले जल तत्व से भी सृस्टि की रचना नही हुई ।अत: भगवान के तीनों दिव्य गुणों के तत्वों के योग होने से ही शायद् सृस्टि की रचना सम्भव हो सकती है ।

!!!!   * परब्रह्म: सूत्र = चेत्तन तत्त्व *

                     * ब्रह्म सुत्र वायु + परम सुत्र आत्मा *       
                                  + सृस्टि मात्र जल +
                                         चेत्तन तत्त्व
                                            *****
                    इन तीनों तत्वों के योग से प्रकृति और चोथा चेतन तत्त्व + होने से सृष्टि " नरतन " बना जो नर से नारायण बनने में सक्षम होने की योग्यता रखतस है। लगता है, यह रहस्य जो आज तक जब से सृस्टि बनी बना हुआ है, खुलने जा रहा है । देवादिदेव त्रिदेव भगवान की तीनों गुणो के आधार पर तीनो शक्तियो का योग होने पर नारायण भगवान का पूर्ण रूप सम्भव है बर्ह्म सुत्र वायु है हर जगह विद्धमान है + जल से प्रकृति सम्भव है +आत्म तत्व, से जीव की उत्पति सम्भव है । अत: (आत्मा) पुरुष + प्रकृति :- इन दोनों तत्वो के योग से सृस्टि की रचना सम्भव है। अब हमारी सृस्टि की रचना तत्व विष्लेषण के आधार पर निश्चित रूप से संम्भव हो गई है अत: वर्तमान युग कलयुग में सृस्टि ( सूक्षमं रूप से मानव शरीर रूपी सृस्टि ) की रचना के बारे में जो रहस्य बना हुआ था अब कोई रहस्य नही है ।प्रकृति के तत्वो के दिव्य गुणों (Divine-Virtues) चेतन तत्व, रिंग, के बन्धन में बंधा आत्म तत्व ही देव जीवात्मा है जिसे इनके मुक्त होने तक बार बार जीव रूपी बन्धन मे बंध कर बार बार जन्म मरण के चक्कर मे अनेक योनियों में आना  जाना पडता है तत्व कारण शरीर है ( इसे शरीरी भी कहते है) । सूक्षमं शरीर, प्राकृतिक गुणों" Natural- Virtues " (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मन, बुद्धी, अहंभाव) के विकारो के बन्धन से बंधा तत्व इसे जीवात्मा भी कहते है और प्राकृतिक तत्वों "Natural- Elements "(आकाश, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी)  से बंधने पर जीवात्मा यह हमारा स्थूल शरीर है । सृस्टि मे जो वन्य प्राणी है उनके अधिकार क्षेत्र सिमित हैं, और मनुष्य देह मे अधिकार क्षेत्र ज्यादा है इस योनी मे अत: जीव नर तन में कुछ नया करने की क्षमता रखता है और अपने मानव शरीर रूपी सृस्टि में रहकर अन्तर्मुखी होते हुए, श्री नारायण भगवान की खोज कर, जो हमे नित्य प्राप्त हैं, सुदर्शन प्राप्त कर,  उनकी शरण को प्राप्त होना ही वास्तव में मानव सत्धयर्म है और उद्धेश्य है ।
    जय श्री राम
                                        * Raj-Yog *

                                                 दास अनुदास रोहतास

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